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Readers Write In #661: कलि के शंकर खोटे

  • Writer: Trinity Auditorium
    Trinity Auditorium
  • Jan 20, 2024
  • 2 min read

By Vishnu Mahesh Sharma

हिय में इनके दरसन राजे, मति में पोथे मोटे

भगति बिसराय नीति बखाने कलि के शंकर खोटे।

अवध बुलावे भूरि भाव से, ये‌ अहं में लोटे-पोटे

इतिहासन‌ में दर्ज़ भयेंगें‌ चतुर नाम कलकोटे।

तिमिर जलधि में ज्योत जराई, आदि प्रभु थे छोटे

बड़कन बना रहे पीठन को भरम भरे‌ परकोटे।

राम-राम रज-रिक्त रज्यो पर, चार मनन हैं कचोटे

क्यों भावे घूंट तुलसी बचन जब पीये मिथ्या के लोटे।

आंगन बैठ आसीस पठावे, नखत आडंबर ओटे

कहत है ‘बिसनु’ सुनो भई साधो, कलि के शंकर खोटे।

छंद के नियम और मात्राओं की गणना का उल्लंघन पदों में सहज ही देखा जा सकता है। पर भावनाओं की तीव्रता जब एक हद से आगे बढ़ जाती है तो नियमों के बांध अक्सर बह जाया करते हैं।

हांलांकि अपने ही इस भावावेश पर मुझे हंसी सी भी आती है। कारण कि जिन पीठासीन आचार्यों के जिन वक्तव्यों की आलोचना इस रचना का मंतव्य है, उससे आज काफी लोग सहमत हो सकते हैं। कइयों के ह्रदय इन विचारों से गदगद भी हो जाये तो आश्चर्य नहीं। किंतु ये भी सत्य है‌ कि इन्हीं आचार्यों के किसी और व्यवहार की आलोचना किसी और समय किसी और कविता में मैंने की होती तो यही सहमत-समूह मुझे हिंदुत्व के नाम पर धब्बा बताता।

इसलिए ऐसा ना समझा जाये‌ कि अचानक मेरे मन‌‌ का हिंदू जाग उठा है। भावनाओं के इन उद्गारों का स्त्रोत किंचीत मात्र भी धार्मिक नहीं है। ये विशुद्ध भारतीय है, विशुद्ध सांस्कृतिक है।‌ 

राम का इस संस्कृति में रमना और इस संस्कृति का राम में रमना वो अनिवार्यता है कि, चार‌‌ तो क्या चार सौ शंकराचार्यों के सम्मिलित ज्ञान‌ का पहाड़ भी ‘द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी‘ के प्रपत्ति भाव के आगे सदैव बौना ही रहेगा।

 
 
 

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