Readers Write In #715: हुज़ूर की कोशिश-ए-हीरामंडी पर बंदा ऐतराज़ दर्ज़ कराता है
- Trinity Auditorium

- Aug 7, 2024
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By Vishnu Mahesh Sharma
बात दिसंबर 2015 की है | इम्तियाज़अली की एक फिल्म तब शायद अपने थियाट्रिकल रन के दूसरे हफ्ते में थी | फिल्म का नाम था तमाशा | उसे फिल्म कहना शायद ग़लत हो | मेरे लिए तो वो ऐसा अनुभव था जैसे कि मेरी चेतना को झकझोर कर किसी ने उसे रूप-हले पर्दे पर उसके सबसे सुन्दर्तम नग्न रूप में उतारा हो | ऐसा लगा जैसे किसी ने सीना फाड़ के पंजों से दिल को जकड़ लिया है| एक आँसू दिल से निकलकर गले से होता हुआ आँखों तक पहुँचा लेकिन उसे छलकने से रोक दिया गया हो | भावनायें आँखों से बही नहीं, बल्कि पलकों पर सिमटकर और अंदर तक उतर गयी | वेद का किरदार वो आईना था जिस में मुझे मेरा बिखरा हुआ अक्स दिखा | वो अक्स जो मैने दुनियादारी की तहों के नीचे दबा रखा था | वो अक्स जिसे मैने सभ्यता और शालीनता का वो जामा पहनाया था की उसकी असली खूबसूरती खुद मेरे लिए एक धुंधली सी याद रह गयी थी | फिल्म के साथ मेरा ये निहायत ही निजी रिश्ता आज मैं इसलिए साझा कर रहा हूँ क्योंकि उस फिल्म के बाद मैने एक फिल्मी रिश्ता और कायम किया |

ये रिश्ता था, भारद्वाज रंगन के ब्लॉग के साथ | फिल्म देखने के बाद जीतने भी रिव्यूज़ मैने पढ़े वो ज़्यादातर या तो मिक्स्ड थे या पूरी तरह से नेगेटिव | मुझे लगा की फिल्म देखकर जो मुझे महसूस हुआ है वो कोई छलावा तो नही है ? एक टूटे हुए मन ने एक टूटे हुए आईने को कहीं हक़ीकत तो नहीं मान लिया? नहीं तो ये कैसे मुमकिन है कि फिल्म की मूल भावना से जुड़ते हुए उस की समीक्षा करता एक भी रिव्यू इंटरनेट पर नहीं है |
और तब अचानक, भारद्वाज रंगन का रिव्यू सर्च रिज़ल्ट्स में आया | मैने इस रिव्यू को भी एक अधमरी उम्मीद के साथ पढ़ना शुरू किया था | लेकिन जब पढ़ने लगा तो पाया कि रिव्यू का एक- एक अल्फ़ाज़ मेरे खामोश जज्बातों की गूँज है जो कि स्याही से लिखी हुई है | अगर फिल्म मेरी चेतना को झकझोर देने वाला भूचाल था तो भारद्वाज का रिव्यू वो मरहम था जो कह रहा था कि फिल्मी दुनिया में अपनी अंतरात्मा का विशुद्ध नग्न रूप देखने वाला मैं अकेला नहीं हूँ | भारद्वाज की आत्मा को फिल्म ने शायद वैसे स्पर्श ना किया हो जैसे मेरी आत्मा को किया | लेकिन उन के शब्द गवाह थे कि उन की चेतना दरवाजे पर फिल्म ने कम से कम एक हल्की सी दस्तक तो दी ही थी | गुमराह और बनावटी रिव्यूज़ की भीड़ में मुझे सच्चाई का एक टुकड़ा उन के लेखन में मिला |
तब से लेकर अभी तक, बहुत से ऐसे मौके आए जब मैं उन के ख़यालों से पूरी तरह एकमत नहीं भी रहा | पर मुद्दा हमेशा यह था कि वैचारिक असहमति से परे उन के तर्कों में सच्चाई का वो खट्टा-मीठा टुकड़ा मुझे हमेशा उछलता-कूदता दिखा | मसलन मुझे ‘जय भीम’ काफ़ी पसंद आई थी जो कि भारद्वाज को उतनी अच्छी नहीं लगी | लेकिन मैं उन की नापसंदगी की वज़ह समझ पा रहा था | इसी तरह आनंद एल राय की फिल्म ‘ज़ीरो’ का उदाहरण लिया जा सकता है जो कि मुझे अटपटी और उन्हे सुनहली लगी | हाल की फिल्मों में तमिल फिल्म ‘महाराजा’ का ज़िक्र किया जा सकता है जहाँ भारद्वाज को फिल्म तुलनात्मक रूप से कम पसंद आई और मुझे काफ़ी शानदार लगी | पर इन सभी मौकों पर उन की अपनी वजह काफ़ी ईमानदारी के साथ दिखाई देती है | इसलिए कभी मैं तो कभी वो माइनोरिटी में रहे पर एक फिल्मी बगीचे की दो जुदा खुश्बुओं की तरह |
मैं अपने और इस ब्लॉग के रिश्ते की कहानी इतने विस्तार से इसलिए बयाँ कर रहा हूँ कि अभी चन्द महीनो पहले पहली बार ऐसा हुआ कि सच्चाई का वो खट्टा-मीठा टुकड़ा मुझे पहली बार गायब दिखा | मैने उसे खूब ढूँढा, बार बार पढ़ के तलाशा, पर वो नज़र नहीं आया |
किस्सा जुड़ा हुआ है ‘हीरामंडी’ के रिव्यू और उस के बाद के उन के एक ट्वीट से | ट्वीट जिस में उन्होने अँग्रेज़ी साहित्य की विभिन्न रचनाओं और कुछ क्लॅसिक हिन्दी फिल्मों का सहारा लेते हुए ये सवाल खड़ा किया कि जिन लोगों को हीरामंडी के संवादों से दिक्कत है उन्हें तो ‘रोमीयो-जूलिएट’, ‘हॅमलेट’, ‘शोले’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ आदि के संवादों से भी दिक्कत होनी चाहिए | यह पहला ऐसा मौका था जब मुझे लगा कि भारद्वाज हीरामंडी को पसंद करने के अपने कारण बता कर संतुष्ट नहीं रह गये थे | वे इस से एक कदम आगे जाकर कोशिश कर रहे थे | कोशिश जो कि हीरामंडी नापसंद करने वालों पर पसंद के कारण थोपने जैसी लगी | और इसी कोशिश में सच्चाई के उन अंशों का अपहरण हुआ |
भारद्वाज के ट्वीट के जवाब में मैं ये लेख काफ़ी पहले लिखना चाहता था | लेकिन मन मान नहीं रहा था कि जैसा मैं सोच रहा हूँ बात वैसी ही है | इसलिए मैने हीरामंडी को और अपने शक़ को एक मौका और दिया | उस वेब सिरीज़ को दोबारा देखने का दुस्साहस किया | अब जाकर मैं कुछ आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यक़ीनन सच्चाई की वो खुश्बू (मेरे नज़रिए में) हीरामंडी के उनके रिव्यू से और उस ट्वीट से गायब थी |

ऐसा सोचने के मेरे अपने कारण है | और कारण ये नहीं है कि एक फिल्म समीक्षक किसी फिल्म या वेब सिरीज़ के समर्थन में कोई पोस्ट नहीं कर सकता | मेरी असहजता का कारण है उनकी वो विचार प्रणाली जो साहित्य और फिल्मों के सागर में डुबकी लगाकर उन मोतियों का मोल लगाने लगी जिनकी कीमत और चमक के आगे हीरामंडी जैसे लाखों हीरों की चमक फीकी है | इसलिए ये लेख एक आहत प्रशंसक का उसके प्रेरणा स्त्रोत से संवाद है |
संवाद कि हीरामंडी के डायलॉग्स की विफलता उनकी नाटकीयता नहीं वरन नाटकीयता की उद्देश्यहीनता है | ज़्यादातर डायलॉग्स का मेलोड्रमेटिक होना या वरबोज़ होना उनकी कमी नहीं है, कमी है मेलोड्रामा का कहानी से परे किसी निर्वात में गुम रहना | आपने कुछ क्लासिकल लिटरेचर के उदाहरण लिए, इसलिए मैं भी साहित्य के द्वारा ही अपना पक्ष रखना चाहूँगा | मेरी पसंदीदा किताबों में से एक किताब है “अ टेल ऑफ टू सिटीज़” | उस किताब के दो ऐसे संवाद मुझे याद आते हैं जो कि ज़रूरत से ज़्यादा ड्रामेटिक लगते हैं | लेकिन उनमे से एक बहुत ही मर्मस्पर्शी और दूसरा अतिवाद से ग्रसित लगता है |
सबसे पहले मैं बात करना चाहूँगा सिडनी कार्टन और लूसी मेनेट के बीच उस मुलाकात की जब कार्टन लूसी से कहता है कि “You have been the last dream of my soul” | ये पूरा संवाद कुछ इस तरह से चलता है
“I wish you to know that you have been the last dream of my soul. In my degradation I have not been so degraded but that the sight of you with your father, and of this home made such a home by you, has stirred old shadows that I thought had died out of me. Since I knew you, I have been troubled by a remorse that I thought would never reproach me again, and have heard whispers from old voices impelling me upward that I thought were silent forever…………A dream, all a dream, that ends in nothing, and leaves the sleeper where he lay down, but I wish you to know that you inspired it.”
आप ही के तर्कानुसार ये सारी बात सिर्फ़ यूँ कही जा सकती थी – “You inspire a change in me”. लेकिन कहानी में ये जिस तरह से कही गयी है वो नाटकीयता की चरम सीमा है | मेलोड्रामा अपने पूरे ज़ोर के साथ इस संवाद मे मौजूद है | लेकिन एक पाठक के तौर पर मुझे यहाँ किसी तरह की शिकायत नहीं होती क्योंकि जब इन किरदारों के बीच ये मुलाकात होती है तब तक दोनो ही किरदारों का मूल स्वाभाव और चरित्र का चित्रांकन बखूबी किया जा चुका होता है | हम ये समझ चुके होते हैं कि कार्टन जीवन से पूरी तरह से निराश एक प्रतिभाशाली वकील है और लूसी वो सुनहरा धागा है जो जिसे छू जाए उसके मन के सारे अंधकार मिटा दे | इस तरह लूसी और कार्टन की ये मुलाकात हम बेजोड़ कॅरक्टर आर्क की रोशनी में पढ़ रहे होते हैं | वहाँ एक सन्दर्भ है , उस सन्दर्भ से उपजति भावी संभावनायें हैं और सन्दर्भ का रोचक अतीत है | ये सभी कारक मिलकर कुछ ऐसा जादू करते हैं कि एक्सट्रीम मेलड्र्मॅटिक होने के बाद भी ये संवाद बहुत ही हृदय विदारक और अविस्मरणीय बन जाता है |
लूसी और कार्टन की इस मुलाकात की सार्थकता स्थापित करने के बाद मैं ध्यान खींचना चाहूँगा एक और अति नाटकीय संवाद और मुलाकात की तरफ | ये लूसी और उसके पिता अलेग्ज़ॅंडर मेनेट की पहली मुलाकात | और यहाँ का डायलॉग तो मेलोड्रामा की पराकाष्ठा है | जिस लूसी को अभी तक पता नहीं था कि उसके पिता ज़िंदा हैं, जो कभी उनसे मिली नही, जिसे अपने पिता द्वारा सही गयी यातनाओं का कोई आभास नही है, वो पहली ही मुलाकात में कहती है
“If you hear in my voice – I don’t know that it is so, but I hope it is – if you hear in my voice any resemblance to a voice that once was sweet music to your ears, weep for it, weep for it!………..If, when I hint yo you of a Home that is before us, where I will be true to you with all my duty and with all my faithful service, I bring back the resemblance of a Home long desolate, while your poor heart pined away, weep for it, weep for it!”
इस मोनोलॉग का ड्रामा और गंभीरता किसी भी दृष्टिकोण से लूसी और कार्टन की मुलाकात की तुलना में कम नहीं है | पर इस के बावजूद ये संवाद कहानी के प्रवाह में रुकावट पैदा करता सा महसूस होता है | और कारण बहुत सरल है – वो है किसी भी तरह के कॅंटेक्स्ट या इवेंट की गैर मौजूदगी | हम अभी अभी लूसी से मिले हैं, अभी अभी अलेग्ज़ॅंडर से मिले हैं और मिलते ही लूसी के ये भाव कुछ अखरते हैं और अधूरे से लगते हैं | हालाँकि “अ टेल ऑफ टू सिटीज़” में इस तरह के कमजोर पल बहुत कम है | पर ये एक पल यहाँ रीजन की सहूलियत के लिए लेना और हाइलाइट करना ज़रूरी था |
हीरामंडी का हाल इससे बिल्कुल उल्टा है | वहाँ मसला ये नहीं है कि डायलॉग भारी भरकम है या एक ख़ास अंदाज़ में बयाँ किए गये हैं | मसला है की ज़्यादातर मौकों पर उनके होने की कोई वजह भारी भरकम नहीं है | मसलन मल्लिका की औलाद का सौदा करने के बाद रेहाना का ये जवाब- “जिसे तुम गोद में लिए घूमती थी उसे हम गले में पहन के घूमेंगे” | ये अल्फ़ाज़ और मौका दोनो असरदार लगते हैं | कारण कि इससे पहले हम जान चुके होते हैं कि ये तवायफो का कोठा / महल है जहाँ किसी बेटे का पैदा होना किसी नवाब से एक अच्छे सौदे की गुंजाइश को जन्म देता है |
लेकिन दूसरी तरफ एक और सीन है – जब मल्लिकजान को पोलीस स्टेशन में बेआबरू करनेवाले ऑफीसर से फरीदन कहती है “हम उन का गुरूर छीनना चाहते थे आबरू नहीं” | ये अटपटा लगता है | डायलॉग बेशक वज़नदार है पर इसके होने की वजह में वजन नहीं है | ये बात एक शातिर तवायफ़ उस दूसरी शातिर तवायफ़ के लिए कहती है जिसने ताउम्र काम ही आबरू और सपनों के सौदे का किया है | सौदे भी ज़बरदस्ती और खुदगर्ज़ी वाले | ऐसे हालत में ये हृदय परिवर्तन, मौके और दस्तूर दोनो के लिहाज़ से निहायत ही झूठा और फीका लगता है |
हीरामंडी के संवादों की पूरी कहानी ऐसी ही है | शुरू के एक-दो एपिसोड्स को छोड़कर ये वज़नदार डायलॉग कहानी से इतर किसी और दुनिया के लगते हैं | इश्क़ के शायराना अंदाज़-ए-बयाँ से मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है | पर जब अंदाज़ सिर्फ़ अंदाज़ दिखाने लिए हो तो वो बनावटी और रिहर्स्ड लगता है | अंदाज़ में से किरदारों की सच्चाई और घटनाओं से जुड़ाव गायब हो तो अलग से सुनने में चाहे वो कितने ही करिश्माई या मसालेदार लगे लेकिन कहानी में वो बेस्वाद ही लगते हैं |
भारद्वाज! आप को वेब सिरीज़ और इसके संवाद पसंद आए इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है | आपत्ति है तो ये कि जिन्हे ये संवाद अप्रासंगिक और गैर-ज़रूरी लगे उन्हे कन्विन्स करने के लिए आप ने कुछ ऐसा किया जो पहले कभी आप से देखने को नहीं मिला था | इस बार आप सिर्फ़ अपनी पसंदगी के पीछे की वजहों तक नहीं रुके बल्कि उससे आगे बढ़कर आपने ये कहना चाहा कि जिन्हे हीरामंडी के डायलॉग्स वरबोज़ लगे उन्हे आधे से ज़्यादा क्लॅसिक लिटरेचर और कुछ क्लॅसिक फिल्में भी वरबोज़ लगनी चाहिए | जबकि उन क्लॅसिक्स के क्लॅसिक किरदारों को जो एजेन्सी और जो आर्क दिया गया है हीरामंडी में तो उस के सौवें हिस्से के बराबर की इंटेग्रिटी भी देखने को नहीं मिलती |
आप इसमें इंटेग्रिटी देखते हैं और ये मैं समझ भी सकता हूँ लेकिन सिरीज़ में दोष देखने वालों को ये कहना कि ऐसे दोषों से तो ओल्ड लिटरेचर और फिल्में भरी पड़ी हैं, एक फॅनबाय का एग्ज़ाइट्मेंट ज़्यादा लगता है |
“आपकी फिल्मी समझ पर शक़ करने से ‘विष्णु’ कतराता है, पर हुज़ूर की कोशिश-ए-हीरामंडी पर बंदा ऐतराज़ दर्ज़ कराता है “





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